Write an essay on the bhakti movement
(भक्ति आंदोलन पर एक लेख लिखे ?)
Bhakti movement:
प्रस्तावना:
भक्ति आन्दोलन एक देशव्यापी जनआन्दोलन था । इस आन्दोलन ने हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म की पारस्परिक कटुता एवं संघर्ष को कम करने में हाथ बंटाया । कहा जाता है कि सूफी मत का उदय वस्तुत: हिन्दुओं के इस धार्मिक आन्दोलन की ही एक देन था । इस आन्दोलन के उपदेशकों और सुधारको ने भारत में चेतना जगायी तथा प्रगतिशील विचारों की एक नयी लहर उत्पन्न की ।
इस आन्दोलन से नये विचारों का जन्म हुआ । इसने भारतीय संस्कृति एवं समाज को एक दिशा दी । इस आन्दोलन ने एक ओर मानवीय भावनाओं को उभारा, वहीं व्यक्तिवादी विचारधारा को सशक्त बनाया, जिसमें भक्ति के माध्यम से ईश्वर से सीधा सम्पर्क स्थापित कर उसमें सदाचार, संयम, मानवता, भक्ति एवं प्रेम आवश्यक समझा गया । भक्ति में मोक्ष तथा भोग में त्याग, जाति-पांति तथा वर्गविहीन समानतावादी समाज की स्थापना पर विशेष बल दिया गया ।
भक्ति आन्दोलन का स्वरूप:
भागवत सम्प्रदाय के साथ हिन्दू धर्म में प्रचलित इस सुधारवादी आन्दोलन का स्वरूप ईसा से पूर्व की गयी भक्ति की अपेक्षा ज्ञान का प्रचार करना था । नवीं शताब्दी में अद्वैतवाद का सिद्धान्त ही इस आन्दोलन का प्रमुख सिद्धान्त था ।
अद्वैतवाद के आचार्य शंकराचार्य ने दक्षिण भारत में जन्म लिया था, जिन्होंने अपने धार्मिक सिद्धान्तों से बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के विद्वानों एवं प्रचारकों को सभी जगहों पर खुले शास्त्रार्थ के द्वारा परास्त किया ।
उन्होंने दक्षिण भारत में इस मत का प्रबल प्रचार किया । स्वामी रामानुजाचार्य का प्रादुर्भाव हुआ । उन्होंने शुद्धाद्वैत का उपदेश साधारण जनता को दिया । इसे भक्ति मार्ग का एकमात्र सरल, सुलभ माध्यम मानकर अपनाया । इसके उपरान्त तुर्क अफगान युग में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों जातियों में ऐसे ही सन्त, महात्माओं का अभिर्भाव हुआ ।
इन सन्तों ने साधारण बोलचाल की भाषा में भजन-गीत आदि के माध्यम से साधारण जनता को प्रभावित किया । उन्होंने बहुदेववाद तथा धर्मांधता का निराकरण करके एकेश्वरवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।
भक्ति आन्दोलन के कारण:
भक्ति आन्दोलन का पहला प्रमुख कारण हिन्दू धर्म में धर्मांधता, बहुदेववाद और कर्मकाण्डों की प्रमुखता का होना था, जिसका पहला कारण एकेश्वरवाद के प्रचार की आवश्यकता तथा भक्ति मार्ग की तत्कालीन मुस्लिम कट्टरता को धार्मिक सहिष्णुता में बदलना था ।
इस आन्दोलन का दूसरा कारण सूफी सन्तों तथा अन्य हिन्दू सन्त-महात्माओं का एक दूसरे के सम्पर्क में आना तथा उनके द्वारा धर्मांधता के दोषों से बचे रहना था । हिन्दू धर्म गे वैदिक जटिल कर्मकाण्डों के स्थान पर भक्ति का सीधा-सच्चा मार्ग बताना इस आन्दोलन का तीसरा प्रमुख कारण था । सामाजिक, धार्मिक समानता एवं सहिष्णुता का भाव लोगों के मन में पैदा करना इसका चौथा कारण था । ईश्वर और मनुष्य एक है, यही इसका मूल सिद्धान्त था ।
भक्ति आन्दोलन के उद्देश्य:
हिन्दू धर्म में व्याप्त बाह्य आडम्बरों, पाखण्ड तथा बहुदेववाद के पर्दे के नीचे छिपे अनेकानेक दोषों को दूर करने हेतु इस आन्दोलन का जन्म व विकास हुआ । इसी तरह हिन्दू धर्म में पूजा-पाठ, व्रत, उपवास, हिन्दू धर्म में कर्मकाण्ड के अनेक विधि-विधान प्रचलित थे, जो कठिन थे ।
इन्हें सरल बनाने हेतु इस आन्दोलन ने कार्य किया । हिन्दू धर्म में व्याप्त भेदभाव को दूर कर समानता का भाव पैदा करना, बहुदेववाद के स्थान पर एकेश्वरवाद का सिद्धान्त प्रचारित करना, मोक्ष प्राप्ति हेतु सांसारिक बन्धनों से मुक्ति पाना इसके प्रमुख उद्देश्य हैं । कबीर ने ईश्वर को विराट सत्ता बताते हुए उनका निवास सच्चे हृदय में बताया है ।
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त एवं प्रचारक
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त एवं सुधारकों में रामानुज, रामानन्द, चैतन्य, ब्राह्मण, नामदेव, मीराबाई, कबीर, रैदास, नानक दक्षिण के आलवार सन्त थे । आलवार सन्त ईसा की 7-8वीं सदी में दक्षिण भारत में हुए ।
निम्न जाति में जन्म लेकर भी उनमें भक्ति भावना, उच्चकोटि की मानवीयता, सदाचारशीलता एवं अद्भुत चमत्कार मिलता है । अत्यन्त सरल-सहज विनम्रतापूर्वक जीवन जीने वाले इन सन्तों ने अपनी भक्तिमय वाणी से जन-जन के हृदय में स्थान बनाया और ईश्वर के श्री चरणों में अपना जीवन बिताया ।
स्वामी रामानुजाचार्य: सन् 1016 में दक्षिण के तिरूकुदूर नामक क्षेत्र में केशव भट्ट ब्राह्मण के घर जन्मे स्वामी रागानुजाचार्य ने अपने पिता की मृत्यु के बाद कांची के मठाधीश के साथ रहकर वेद-वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया । उन्होंने विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया ।
आत्मा और परमात्मा को थोड़ा भिन्न बताते हुए उन्होंने भगवान् विष्णु को ही सर्वेश्वर व सर्वात्मा माना, जो मनुष्य पर दया करने के लिए मनुज अवतारों में जन्म लेते हैं । विष्णु के साथ लक्ष्मी की उपासना पर भी बल दिया । मनुष्य को केवल कर्म करना चाहिए, फल की आशा नहीं करनी चाहिए । भक्ति द्वारा ईश्वर तथा मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है ।
रामानन्दाचार्य: स्वामी रामानन्द भी दक्षिण के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे । भगवान् विष्णु को अपना इष्ट मानते थे । वे जातिप्रथा के घोर विरोधी थे । उन्होंने भक्ति को ही मोक्ष का एकमात्र साधन बताया । उनके प्रमुख शिष्यों में कबीर, रैदास, नरहरि, पीपा, सुखानन्द थे ।
माधवाचार्य: वे बाल्यावस्था से ही संसार से विरक्त हो गये थे । वे विष्णु के उपासक थे । उनके सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान से ही भक्ति उत्पन्न होती है । मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य “हरि दर्शन” करना है ।
निबंकाचार्य: मद्रास के बेलारी जिले में स्थित निबंपुर में पैदा हुए थे । उन्होंने विशिष्टा द्वैतवाद, द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद में समन्वयवाद स्थापित कर मध्यम मार्ग अपनाया । उन्होंने कृष्ण को ईश्वर का अवतार माना । श्रीमद्भागवत एवं भगवद्गीता के उपदेशों का पालन करने से मोक्ष की प्राप्ति मानी है । उन्होंने लीला तत्त्व को वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख अंग बनाया ।
बल्लभाचार्य: वल्लभाचार्य कृष्ण भक्ति शाखा के महान् सन्त थे । उन्होंने सम्पूर्ण देश में भ्रमण कर अपने उपदेशों और विचारों का दृढ़तापूर्वक प्रचार किया । उन्होंने सांसारिक मोह-माया का त्याग कर ईश्वर-भक्ति का मार्ग अपनाने पर जोर दिया । उन्होंने पुष्टिमार्ग के सिद्धान्त को अपनाया तथा भगवान् कृष्ण में एकाकार होने की शिक्षा दी ।
शैवाचार्य: वैष्णव भक्तों के आलवार सन्तों की तरह शैव भक्तों में नायनार भक्तों का अविर्भाव हुआ । जिस प्रकार आलवार. भक्तों ने भगवान विष्णु को सर्वातरयामी माना है, उसी प्रकार नायनार सन्तों ने भगवान् शिव को माना उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण सृष्टि में शिव व्याप्त हैं, चेतना में, ब्रह्माण्ड में उनका ही अनादि एवं सत्य रूप है । शैवों ने सृष्टि की पांच प्रक्रियाएं बतायी है: 1. सृष्टि की रचना, 2. सृष्टि का पालन, 3. सृष्टि का विनाश, 4. जीव की मोह-माया से आसक्ति और, 5. शिव की कृपा से जीव की मुक्ति ।
श्री चैतन्य महाप्रभु: बंगाल में जन्मे चैतन्य महाप्रभु ने 25 वर्ष की अवस्था में गृहत्याग कर भौतिक जीवन से विरक्ति ले ली । उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन हरि-भक्ति में लगा दिया । 6 वर्षों तक भारत में घूमकर कृष्ण भक्ति का प्रचार किया । उनका एक शिष्य अछूत था ।
अपने इस अछूत शिष्य को गले लगाते हुए उन्होंने कहा था: “हरिदास, तुम्हारा यह शरीर मेरा अपना है, प्रेम एवं आत्मसमर्पण की भावना से तुम्हारा शरीर एक मन्दिर के समान है ।” चैतन्य महाप्रभु ने बाह्य आडम्बरों तथा झूठे कर्मकाण्डों का विरोध करके शुद्धाचार पर अधिक बल दिया । उन्होंने कहा: “प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत सुखों का त्याग कर, अपने जीवन्, शरीर एवं आत्मा को ईश्वर में समर्पित कर देना चाहिए । रात-दिन ईश्वर की सुश्रुषा में निमग्न रहना चाहिए ।”
सन्त कबीर: कबीरदास निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी सना एवं समाज-सुधारक कवि थे । नीरू एवं नीमा जुलाहे दम्पत्ति के यहां पालित-पोषित कबीरदासजी के गुरु रामानन्दजी थे । कबीरदासजी अनपढ़ थे, तथापि जीवन-दर्शन एवं उनके धर्म सम्बन्धी ज्ञान के आगे कोई ठहर नहीं पाता था । कबीरदासजी ने तत्कालीन समय में व्याप्त धार्मिक आडम्बरों कर्मकाण्डों, पूजा-पाठ के विधि-विधानों का जमकर विरोध किया ।
उधर मुस्लिम धर्म में व्याप्त धार्मिक रूढ़ियों, रोजा रखने तथा अजान देने पर भी व्यंग्य किया । कबीरदासजी ने हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म के ठेकेदारों को जमकर फटकारा । उन्होंने जनता को ईश्वर भक्ति एवं धर्म का सीधा-सच्चा मार्ग बताया ।
कबीरदासजी ने ईश्वर को सर्वव्यापी कहा, आत्मा एवं परमात्मा को एक ही बताया । ईश्वर को निर्गुण रूप में स्वीकार करते हुए उन्होंने मूर्तिपूजा, माला फेरना, तीर्थाटन करना तथा मूंछ मुंडाना आदि का भी विरोध किया ।
कबीर ने अपनी निर्भीक एवं स्पष्ट वाणी में धार्मिक समन्वयवाद, इन्द्रिय निग्रह, सदाचरण, आचरण की शुद्धता, माया-मोह के त्याग, गुरा महिमा, नाम स्मरण, आत्मा एवं परमात्मा की एकरूपता तथा अहिंसा को महत्त्व दिया । उनकी सारी वाणियां उनके शिष्यों द्वारा ”बीजक’ में संग्रहित हैं ।
गुरुनानक देवजी: लाहौर के तलवंडी ग्राम में सन् 1499 को एक खत्री परिवार में जन्मे गुरुनानक देवजी को सिक्स सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है । बचपन से ही वे परोपकारी और दानी स्वभाव के थे ।
सांसारिक जीवन एवं मिथ्या आडम्बरों का त्याग कर वे ईश्वर भक्ति में लीन हो गये । उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया । हिन्दू और सिक्स धर्म का समन्वित आदर्श नानक पंथ में मिलता है ।
महात्मा कबीर की भांति उन्होंने सभी को समान मानते हुए शुद्धाचरण पर बल दिया । उन्होंने कहा कि: “संसार की अपवित्रताओं के मध्य पवित्र बने रहना, सबको समान मानना ही धर्म है ।” उन्होंने मुसलमानों को उपदेश देते हुए कहा कि: “दयालुता की मस्जिद बनाओ, ईमानदारी की नमाज पढ़ो, नम्रता को खतना मानो सौजन्यता को रोजा समझो, सदाचार को काबा मानो, तभी तुम सच्चे मुसलमान बनोगे ।”
नामदेव: 13वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में जन्मे इस सन्त ने धार्मिक एकता पर बल देते हुए जातीय भेदभाव की घोर निन्दा की । नाथ पंथ को अपनाते हुए सर्वव्यापक निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल दिया ।
उन्होंने मुसलमानों पर भी अपनी भक्ति का ऐसा प्रभाव डाला कि कई मुसलमान उनके शिष्य बन गये । उनका कहना था कि: ‘भक्ति-भाव के लिए न तो मन्दिर चाहिए और न मस्जिद ।’
ज्ञानदेव: 13वीं सदी के अन्त में महाराष्ट्र के पंढरपुर में जन्मे नामदेवजी विष्णु के उपासक थे । वे कृष्ण विट्ठल स्वामी को पूजते थे । उन्हीं के संकीर्तन में लगे रहते थे । वै अद्वैतवादी थे । उन्होंने जनभाषा मराठी में ज्ञानेश्वरी लिखी थी । ज्ञान भक्ति का सुन्दर समन्वय करते हुए उन्होंने कहा कि-ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का भक्तिपूर्वक चिन्तन एवं मनन करना चाहिए । ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र उपाय सगुण भक्ति ही है ।
सन्त रैदास: सन्त रैदास स्वामी रामानन्द के शिष्य थे । वे वैष्णव पंथी थे । निम्न कुल में जन्मे सन्त रैदास को जाति-पांति के भेदभाव व उपेक्षा का घोर अपमान सहना पड़ा । उनके सजातीय अनुयायी एक पृथक पंथ में परिवर्तित हो गये । उन्होंने भी शुद्धाचरण, मानव की समानता, धार्मिक समन्वय पर बल दिया ।
सूरदास, तुलसीदास व मीराबाई: सूरदास तथा मीराबाई ने कृष्ण के प्रति अपना अनन्य भक्तिभाव एवं समर्पण भाव व्यक्त किया, तो तुलसीदास ने राम के प्रति अपना एकनिष्ठ भाव व्यक्त करते हुए उनकी आदर्श चरित्र गाथा को जन-जन तक रामचरितमानस के माध्यम से पहुंचाया ।
भक्ति आन्दोलन का प्रभाव:
भक्ति आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव सामाजिक क्षेत्र में पड़ा, जिसने जातिगत भेदभाव को दूर करते हुए मानव मात्र की समानता पर बल दिया । हिन्दू-मुस्लिम एकता का सूत्रपात किया । निम्न वर्ग के प्रति सम्मान भाव बढ़ाया ।
सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया । धार्मिक क्षेत्र में ब्राह्मणों द्वारा फैलाये गये कर्मकाण्ड, बाह्य आडम्बरों व अन्धविश्वासों को कम किया । गुरु के महत्त्व को बढ़ाया । राजनीतिक दृष्टि से राष्ट्रीयता: को बल मिला । हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अनूठा समन्वय एवं सौहार्द्र भाव विकसित हुआ, जिससे वे एक-दूसरे के पूजास्थलों में जाकर नतमस्तक होने लगे धार्मिक व सामाजिक संकीर्णता थोड़ी दूर हुई ।
7. उपसंहार:
इस तरह स्पष्ट होता है कि भक्ति आन्दोलन तत्कालीन समय का क्रान्तिकारी आन्दोलन था । उस युग के सन्त एवं महात्माओं ने अपने धार्मिक विचारों, सिद्धान्तों और उपदेशों से सामान्य जनता को सामाजिक व धार्मिक एकता का न केवल पाठ पढ़ाया, वरन् उन्हें ईश्वर प्राप्ति एवं धर्म का सच्चा मार्ग दिखलाया ।
तत्कालीन समय से लेकर आज तक उन सन्तों की विचारधारा एवं आदर्श ने लोगों का पथप्रदर्शन किया है । उन सन्तों और महात्माओं के सच्चे अनुयायी आज भी उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने जीवन को सार्थक व पूर्ण बना रहे है तथा मानव धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं ।
Introduction:
Bhakti movement was a countrywide mass movement. This movement helped in reducing the mutual bitterness and conflict between Hindu and Muslim religions. It is said that the rise of Sufism was actually a contribution of this religious movement of Hindus. The preachers and reformers of this movement awakened consciousness in India and generated a new wave of progressive thoughts.
New ideas were born from this movement. It gave a direction to Indian culture and society. On one hand, this movement stirred human emotions, while on the other hand it strengthened the individualistic ideology, in which morality, restraint, humanity, devotion and love were considered necessary by establishing direct contact with God through devotion. Special emphasis was laid on salvation in devotion and renunciation in enjoyment, establishment of caste-less and classless egalitarian society.
2. Nature of Bhakti Movement:
The nature of this reformist movement prevalent in Hindu religion along with Bhagwat sect was to propagate knowledge rather than the devotion done before Christ. In the ninth century, the principle of monism was the main principle of this movement.
Acharya Shankaracharya of monism was born in South India, who defeated the scholars and preachers of Buddhism and Jainism everywhere through open debates with his religious principles.
He propagated this belief strongly in South India. Swami Ramanujacharya appeared. He preached Shuddhadvaita to the common people. It was adopted considering it to be the only simple, accessible medium of the path of devotion. After this, during the Turk-Afghan era, similar saints and mahatmas emerged among both Hindus and Muslims.
These saints influenced the common people through hymns, songs etc. in simple spoken language. He rejected polytheism and fanaticism and propounded the principle of monotheism.
Reasons for Bhakti Movement:
The first major reason for the Bhakti movement was the prominence of fanaticism, polytheism and rituals in Hindu religion, the first reason for which was the need to propagate monotheism and transform the then Muslim fanaticism of the path of Bhakti into religious tolerance.
The second reason for this movement was the Sufi saints and other Hindu saints and mahatmas coming in contact with each other and being saved from the vices of fanaticism. The third main reason for this movement was to show the simple and true path of devotion in place of the complex Vedic rituals of Hindu religion. The fourth reason for this was to create a feeling of social, religious equality and tolerance in the minds of people. God and man are one, this was its basic principle.
Objectives of Bhakti Movement:
This movement was born and developed to remove the numerous flaws hidden under the veil of external ostentation, hypocrisy and polytheism prevalent in Hindu religion. Similarly, many rituals like worship, fasting, rituals were prevalent in Hindu religion, which were difficult.
This movement worked to simplify them. Its main objectives are to remove the discrimination prevailing in Hindu religion and create a feeling of equality, to propagate the principle of monotheism in place of polytheism, to get freedom from worldly bondages to attain salvation. Kabir has described God as a huge being and has described His residence in the true heart.
Major saints and preachers of Bhakti movement
The prominent saints and reformers of the Bhakti movement included Ramanuj, Ramanand, Chaitanya, Brahmin, Namdev, Mirabai, Kabir, Raidas and Nanak, the Alwar saints of the South. Alwar saints originated in South India in the 7th-8th century AD.
Despite being born in a lower caste, they have devotion, high level of humanity, virtuous behavior and amazing miracles. These saints, who lived a very simple and humble life, made a place in the hearts of people with their devotional speech and spent their lives at the feet of God.
Swami Ramanujacharya: Born in the year 1016 in the house of Keshav Bhatt Brahmin in the area called Tirukudur in the south, Swami Raganujacharya acquired the knowledge of Vedas and Vedangas by staying with the abbot of Kanchi after the death of his father. He propounded Vishishtadvaita.
Describing the soul and the Supreme Soul as slightly different, he considered Lord Vishnu to be the Supreme Lord and the Supreme Soul, who takes birth in human incarnations to have mercy on humans. Emphasis was also laid on the worship of Lakshmi along with Vishnu. Man should only do his work and not expect results. Attainment of God and salvation is possible through devotion.
Ramanandacharya: Swami Ramananda was also born in a Brahmin family of the South. He considered Lord Vishnu as his favourite. He was a staunch opponent of the caste system. He described devotion as the only means of salvation. His main disciples were Kabir, Raidas, Narhari, Pipa, Sukhanand.
Madhvacharya: He had become detached from the world since childhood. He was a worshiper of Vishnu. According to his theory, devotion arises from knowledge only. The ultimate goal of man is to see “Hari Darshan”.
Nibankacharya: Was born in Nibambapur, located in Bellary district of Madras. He adopted a middle path by establishing syncretism between Vishishta Dvaitavad, dualism and monism. He considered Krishna to be an incarnation of God. Salvation is believed to be achieved by following the teachings of Srimad Bhagwat and Bhagavad Gita. He made Leela element an important part of Vaishnav sect.
Vallabhacharya: Vallabhacharya was a great saint of Krishna Bhakti branch. He traveled all over the country and propagated his teachings and ideas vigorously. He emphasized on renouncing worldly attachments and adopting the path of devotion to God. He adopted the principle of Pushtimarg and taught unity with Lord Krishna.
Shaivacharya: Like the Alwar saints of Vaishnav devotees, Nayanar devotees emerged among the Shaivite devotees. Like Alwar. Devotees consider Lord Vishnu to be omnipresent, similarly, Nayanar saints consider Lord Shiva to be omnipresent. In their view, Shiva is present in the entire creation, in the consciousness, in the universe as his eternal and true form. Shaivites have described five processes of creation: 1. Creation of the universe, 2. Maintenance of the universe, 3. Destruction of the creation, 4. Attachment of the living being to attachment and illusion and, 5. Liberation of the living being by the grace of Shiva.
Sri Chaitanya Mahaprabhu: Born in Bengal, Chaitanya Mahaprabhu left his home at the age of 25 and became detached from material life. He devoted his entire life to devotion to Hari. Traveled around India for 6 years and preached devotion to Krishna. One of his disciples was an untouchable.
Embracing his untouchable disciple, he said: “Haridas, this body of yours is my own, with the spirit of love and surrender your body is like a temple.” Chaitanya Mahaprabhu opposed external ostentation and false rituals and laid more emphasis on pure conduct. He said: “Every person should give up his personal pleasures and dedicate his life, body and soul to God. One should remain immersed in the divine care day and night.”
Saint Kabir: Kabir Das was a knowledgeable and social reformer poet of Nirguna poetry stream. Kabirdasji’s guru, Ramanandji, was brought up in the house of the weaver couple Neeru and Neema. Kabir Dasji was illiterate, yet no one could stand before his philosophy of life and his knowledge of religion. Kabirdasji vehemently opposed the religious pomp, rituals and rituals of worship prevalent at that time.
On the other hand, he also satirized the religious conventions prevalent in the Muslim religion, fasting and giving Azaan. Kabirdasji strongly reprimanded the contractors of Hindu and Muslim religions. He told the public the true path of devotion to God and religion.
Kabirdasji called God omnipresent and described soul and God as one. While accepting God as having no qualities, he also opposed idol worship, rosary rosary, pilgrimage and shaving of moustache, etc.
In his bold and clear speech, Kabir gave importance to religious syncretism, control of senses, good conduct, purity of conduct, renunciation of illusion, glory of Guru, remembrance of name, uniformity of soul and God and non-violence. All his speeches are collected in “Bijak” by his disciples.
Guru Nanak Devji: Born in 1499 in a Khatri family in Talwandi village of Lahore, Guru Nanak Devji is considered the founder of the Six sect. Since childhood, he was of philanthropic and charitable nature.
Abandoning worldly life and false ostentation, he became engrossed in devotion to God. He emphasized on Hindu-Muslim unity. The integrated ideal of Hinduism and six religions is found in Nanak Panth.
Like Mahatma Kabir, he considered everyone equal and emphasized on purity. He said: “Remaining pure amidst the impurity of the world, treating everyone equal is religion.” He preached to the Muslims saying: “Build a mosque of kindness, offer prayers of sincerity, consider humility as circumcision, consider courtesy as fasting, consider virtue as Kaaba, only then will you become a true Muslim.”
Namdev: Born in Maharashtra in the 13th century, this saint strongly condemned caste discrimination while emphasizing on religious unity. Adopting the Nath sect, he laid emphasis on the worship of the omnipresent Nirguna Brahma.
He also had such an impact on Muslims with his devotion that many Muslims became his disciples. He said: ‘Neither a temple nor a mosque is needed for devotion.’
Gyandev: Born in Pandharpur, Maharashtra at the end of the 13th century, Namdevji was a worshiper of Vishnu. He used to worship Krishna Vitthal Swami. Used to remain engaged in his sankirtan. He was a monist. He wrote Dnyaneshwari in the popular language Marathi. While giving a beautiful coordination of knowledge and devotion, he said that through the attainment of knowledge, one should devoutly think and meditate on the real form of God. The only way to attain God is pure devotion.
Saint Raidas: Saint Raidas was the disciple of Swami Ramanand. He was a Vaishnav sect. Saint Raidas, born in a low caste, had to endure the severe humiliation of caste-based discrimination and neglect. His homogeneous followers converted into a separate sect. He also emphasized on pure conduct, equality of human beings and religious coordination.
Surdas, Tulsidas and Meerabai: Surdas and Meerabai expressed their undivided devotion and dedication towards Krishna, while Tulsidas expressed his devotion towards Ram and spread his ideal character story to the people through Ramcharitmanas.
Impact of Bhakti Movement:
The greatest impact of the Bhakti movement was in the social sector, which removed caste discrimination and emphasized the equality of human beings. Initiated Hindu-Muslim unity. Increased respect towards the lower class.
Tried to remove social evils. In the religious field, the rituals, external ostentation and superstitions spread by Brahmins were reduced. Increased the importance of Guru. Nationalism gained strength from the political point of view. A unique sense of coordination and harmony developed between Hindus and Muslims, due to which they started visiting each other’s places of worship and bowing down to each other. Religious and social narrow-mindedness went away a little.
Conclusion:
In this way it becomes clear that the Bhakti movement was a revolutionary movement of that time. The saints and mahatmas of that era, through their religious thoughts, principles and teachings, not only taught the common people the lesson of social and religious unity, but also showed them the true path of attaining God and religion.
From that time till today, the ideology and ideals of those saints have guided the people. Even today, the true followers of those saints and mahatmas are making their lives meaningful and complete by following the path shown by them and propagating human religion.